सेना के सहारे सियासत देशद्रोह से कम नहीं
अजय कुमार, लखनऊ।
गांधी के देश का इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि यहां उस इंसान के बोलने पर तो बखेड़ा खड़ा हो जाता है जिसने अपना पूरा जीवन देश के लिये कुर्बान कर दिया हो लेकिन उन लोगों के मुंह बंद करने की कोई हिम्मत नहीं जुटा पाता है जिन्होंने हमेशा देश को नोचा-खसोटा और उसके टुकड़े-टुकड़े करने का दम्भ भरते हैं। सेना प्रमुख जनरल विपिन रावत के सीधे-सपाट बयान पर कथित बुद्धिजीवियों और तुष्टिकरण की राजनीति करने वाले नेताओं का हंगामा खड़ा किया जाना हैरान करता है। सेनाध्यक्ष ने गलत नहीं कहा कि लोगों को गलत दिशा दिखाने वाले नेता नहीं कहे जा सकते। क्या सेना प्रमुख को यह कहना चाहिये था कि जनता को को गलत दिशा दिखाने वालों को भी नेता कहा जाना चाहिये? या वह यह कहते कि देश के टुकड़े-टुकड़े करने का नारा लगाने वालों को अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर कुछ भी कहने और बोलने की पूरी छूट है? या उनको यह कहना चाहिये था कि देश को हिंसा-आगजनी के हवाले करने वालों के भी अपने अधिकार हैं? सेनाध्यक्ष के बयान पर ओवैसी जैसे नेता, टुकड़े-टुकड़े गैंग के सदस्य और 'अर्बन नक्सली' हो हल्ला मचायें तो ज्यादा बुरा नहीं लगता है, क्योंकि यह वर्षों से हिन्दुओं और हिन्दुस्तान को गाली देने का अपना एजेण्डा चला रहे हैं। यह पाकिस्तान की भाषा बोलते हैं। रंगा-बिल्ला की बात करते हैं। आतंकवादियों और देश तोड़ने वाली शक्तियों के अधिकारों को लेकर चिंतित रहते हैं लेकिन गांधी नाम का ढिंढोरा पीटने वाली कांग्रेस के नेता जब सेना या सेनाध्यक्ष की नियत पर सवाल खड़ा करते हैं तो लगता है कि कांग्रेस के गांधी वह नहीं हैं जिसकी देश के 130 करोड़ लोग 'पूजा' करते हैं। कांग्रेस के लिये तो उसके छद्म गांधी ही सब कुछ हैं जिनकी वह दशकों से चरण वंदना करता आया है। यह और कोई नहीं इंदिरा गांधी से लेकर राहुल गांधी एवं प्रियंका गांधी के रूप पहचाने जाते हैं जबकि इस बात का जबाव यह परिवार कभी दे ही नहीं पाया कि उसका सरनेम गांधी कैसे हो गया।
बहरहाल सेना प्रमुख तो साधुवाद के पात्र हैं कि उन्होंने राजनीतिक रोटियां सेंकते और हिंसा का माहौल बनाते नेताओं को आईना दिखाया और बिना किसी लाग-लपेट यह भी कहा कि हमने देखा है कि कॉलेज और विश्वविद्यालयों में जो विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं उनमें हिंसा हो रही है। आखिर एक जिम्मेदार पद पर बैठने के साथ सेनाध्यक्ष एक आम नागरिक भी तो हैं। क्या उन्हें देशहित में बोलने से सिर्फ इस लिये रोक दिया जाय, क्योंकि कुछ देश विरोधी ताकतों को ऐसे बयानों से परेशानी होती है। यदि उन्होंने हिंसा और आगजनी करती भीड़ का नेतृत्व करने वालों को सही नेतृत्व की संज्ञा देने से इन्कार कर दिया तो विपक्षी नेताओं को बुरा क्यों लग रहा है। उन्होंने किसी का नाम तो लिया नहीं है, फिर भी अगर कुछ नेताओं को लगता है कि सेनाध्यक्ष का बयान गलत है तो ऐसा इसलिये हुआ होगा, क्योंकि यह नेता जानते होंगे कि वे भी तो स्वयं उन नेताओं में शामिल हैं जो हिंसा और अराजकता के लिये लोगों को भड़काकर सड़कों पर उतार रहे हैं?
अच्छा होता कि सेनाध्यक्ष के बयान पर हो-हल्ला मचाने वाले सफेदपोश और कथित बुद्धिजीवी यह बताते कि उन्होंने हिंसा रोकने के लिये क्या किया अथवा उन नेताओं के नाम उजागर करते जिन्होंने हिंसा को भड़काने की बजाय रोकने का प्रयास किया हो लेकिन जब ऐसा नहीं हो सके तो सबसे अच्छा यही है कि स्वयं के साथ सामने वाले के दामन को भी दागदार कर दिया जाय। अगर ऐसा न होता तो सेनाध्यक्ष का बयान एक नजीर बन जाता। इसके उलट मोदी सरकार को नीचा दिखाने के चक्कर में तमाम नेताओं/कथित बुद्धिजीवियों ने ऐसे बयान दिये जिससे आगजनी और पत्थरबाजी करने वालों के हौसले बुलंद हुये थे। मोदी सरकार के हर फैसले पर अंगुली उठाने वालों को नहीं भूलना चाहिये कि वह मनमोहन सिंह की तरह देश पर थोपे हुये प्रधानमंत्री नहीं हैं। जनता ने मोदी के नाम पर वोट दिया था। उनको चुनकर भेजा था जिन्हें यह लगता है कि सेना प्रमुख विरोध-प्रदर्शन की आलोचना कर रहे हैं। उन्हें उनके वक्तव्य को फिर से सुनना और समझना चाहिये।
उन्होंने सिर्फ विरोध के नाम पर फैलाई जा रही हिंसा और अराजकता की आलोचना की थी। ऐसा करना तो हर भारतीय का धर्म है। नागरिकता कानून के विरोध के बहाने जो अराजकता हुई, उसने देश की आंतरिक सुरक्षा को लेकर भी सवाल खड़े किये। आखिर कोई यह सोच भी कैसे सकता है कि आंतरिक सुरक्षा पर असर डालने वाली व्यापक हिंसा पर सेना प्रमुख मौन रहें? आखिर देश में उथल-पुथल का असर सीमाओं पर भी तो पड़ता है। पड़ोसी देश जब मौके का फायदा उठाने के लिये हमेशा तत्पर रहते हों तब देश में होने वाली प्रत्येक छोटी-बड़ी घटना पर सीमा पर मोर्चा संभाले खड़ी सेना को भी ध्यान रखना पड़ता है। किसी भी सैन्य अधिकारी से यह अपेक्षा क्यों की जानी चाहिये कि वह इस भय से आंतरिक सुरक्षा पर असर डालने वाली घटनाओं पर बोलने से बचे कि कुछ नेता उसके बयान की मनमानी व्याख्या करके हाय-तौबा मचा सकते हैं? चाहे विपिन रावत हों या फिर उनसे पहले अथवा बाद में आने वाले सेनाध्यक्षों से तो यह अपेक्षा बिलकुल भी नहीं की जानी चाहिये कि वह मूकदर्शक बने रहे। राष्ट्रीय सुरक्षा को प्रभावित करने वाले हर मसले पर बेबाकी से बोलने का अधिकार सेनाध्यक्ष को होना ही चाहिये हैं जो नेता सेना प्रमुख को यह नसीहत दे रहे हैं कि उन्हें संभलकर बोलना चाहिये। उन्हें सबसे पहले यह देखना चाहिये कि वे खुद कितना संभलकर बोलते हैं?
कोई विपक्षी नेता यह कहता है कि नागरिकता कानून के विरोध में अराजकता नहीं फैलायी गयी तो यह सफेद झूठ ही नहीं, देश की आंखों में धूल झोंकने की कोशिश भी है। विपिन रावत ने इसी कोशिश को इशारे से बेनकाब किया है। इससे कोई तिलमिला जाता है तो यह उसकी मजबूरी समझनी चाहिये। सेनाध्यक्ष कोई जंग वाली भाषा तो नहीं बोले- वह तो उस शान्ति की बात कर रहे थे जो हर सच्चा देशभक्त चाहता है। गांधी भी तो यही चाहते थे कि देश में अमन रहे। मगर गांधी के कथित भक्तों को क्या कहा जाय जो मुंह में गांधी और दिमाग में 'गंदगी' लेकर घूमते हैं।
खैर! यहां यह भी ध्यान रखना होगा कि सेना या सेनाध्यक्ष को लेकर पहली बार हो-हल्ला नहीं हो रहा है। जब भी किसी को ओछी राजनीति करना या सियासी रोटियां सेंकनी होती है तो वह सेना को निशाना बनाने से चूकता नहीं है। कांग्रेस की दिवंगत नेता और दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के सुपुत्र संदीप दीक्षित तो सेनाध्यक्ष को सड़क छाप गुण्डे तक की उपमा दे चुके हैं। इसी प्रकार आर्मी चीफ विपिन रावत ने 15 फरवरी 2017 को जब चेतावनी भरे लहजे में कहा था कि कश्मीर में आतंकवादियों के खिलाफ सेना के आपरेशन्स में बाधा डालने वालों को आतंकवादियों का सहयोगी समझा जायेगा और उनके खिलाफ भी कार्यवाही की जायेगी तब जनरल रावत के इस बयान पर राज्यसभा में नेता विपक्ष के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद ने कहा था कि पिछले साल 1000 बच्चों को स्प्लिन्टर्स लगे। 100-200 बच्चों की आंखें चली गयीं। यह कहना कि हम कश्मीर के बच्चों को पकड़ लेंगे, इसे देश के लोग पसंद नहीं करेंगे। इसी तरह से कांग्रेस सांसद रंजीत ने सेना की कार्यशैली पर विवादित बयान देते हुये कहा था कि भारतीय सेना ऐसे ही हमारे भाइयों को नहीं मार सकती। हद तो तब हो गयी जब पूर्व केन्द्रीय गृृह मंत्री चिदम्बरम ने यहां तक कह दिया कि सेनाध्यक्ष विपिन रावत ने अपनी सारी सीमाएं लांघ दी हैं। लोगों को इनका समर्थन नहीं करना चाहिये। सपा नेता आजम खान को तो जैसे सेना को लेकर विवादित बयान देने में महारथ हासिल हो। वह कारगिल युद्ध की व्याख्या करते हुये यहां तक कह चुके थे कि कारगिल की चोटी पर तिरंगा फहराने वाला सैनिक मुस्लिम था। इस पर आजम की काफी किरकिरी हुई थी, क्योंकि भारतीय सेना का स्वरूप पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष है। इसे जातियों के बंधन में कभी नहीं बांटा गया। इसी प्रकार आजम ने अप्रैल 2017 में उस समय भी सेना पर अंगुली उठायी थी जब छत्तीसगढ़ के सुकमा में नक्सली हमलों में महिला नक्सलियों ने घात लगाकर सीआरपीएफ के जवानों पर हमला बोल दिया था और हमले के दौरान महिला नक्सलियों ने सैनिकों के गुप्तांग काट लिये थे। इस पर आजम खान ने सेना को लेकर अमर्यादित बयान देते हुये कहा था कि जहां सेना रेप करती है, वहां सेना के जवानों के साथ ऐसा होता है। लब्बोलुआब यह है कि हमारे नेताओं को अपनी सियासी जंग जीतने के लिये सेना का सहारा नहीं लेना चाहिये। सेना को विवाद में घसीटकर उसका मनोबल तोड़ना एक देशद्रोही कदम है। इसकी जितनी भी भर्त्सना की जाय, कम है। सरकार को ऐसे कानून बनाना चाहिये जिससे सेना के खिलाफ अनाप-शनाप बोलने वालों पर कानूनी शिकंजा कसा जा सके। सेना या सैनिक के पराक्रम को विवादों में नहीं घसीटना लोकतांत्रिक रूप से भी काफी जरूरी है।
सेना के सहारे सियासत देश द्रोह से कम नहीं